मैंने हाल ही में अपने किताबों के संग्रह में एक दिलचस्प किताब जोड़ी है। मैंने खरीदा हुआ पहला हिंदी उपन्यास — कपिल संघवी लिखित लक्ष्मण: एक महायोद्धा, एक अनकहा पहलू।
वैसे तो रामायण का हर एक पात्र महत्वपूर्ण है और किसी एक के बिना भी कथा अधूरी है। पर इस कथा के तीन मुख्य पात्र है – राम, सीता और लक्ष्मण। राम की जिंदगी के सबसे अहम गवाह है – लक्ष्मण। उन्होंने राम का बचपन से अनुकरण किया है, और अंत तक साथ दिया है। जीवन की इस यात्रा में लक्ष्मण ने कई उतार चढ़ाव देखे, उनसे सीख ली। रामायण के हर रोचक मोड़ का लक्ष्मण एक केंद्रबिंदु रह चुके है। लक्ष्मण हमेशा से ही मेरे सबसे प्रिय पात्र रहे है (इसका कुछ श्रेय 1990s की रामायण में लक्ष्मण के किरदार निभाने वाले श्री सुनील लहरी को भी जाता है 😊)। परंतु मैं अक्सर ये सोचती थी कि वनवास में अगर लक्ष्मण राम का साथ नहीं देते तो क्या होता। राम भले ही बड़े भाई थे, पर उन्हें लक्ष्मण ने मां, पिता, भाई, पुत्र, और मित्र की तरह संभाला है।
लक्ष्मण: एक महायोद्धा, एक अनकहा पहलू यह किताब लक्ष्मण के जीवन का लेखा–जोखा है, लक्ष्मण की जुबानी। अपने आप को अत्यंत साधारण बताने वाले लक्ष्मण हमें उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक की असाधारण जीवन यात्रा से अवगत कराते है।
लक्ष्मण बनकर लेखक ने रामायण बड़ी ही practical शैली में सुनाई है। जैसे कि अहिल्या की कथा – हम तो यही कथा सुनते आए है कि अपने पति गौतम ऋषि के शाप से अहिल्या पत्थर बन गई थी और उसका उद्धार राम ने किया। पर यहां इस कहानी का रूप कुछ अलग और असल जिंदगी के नज़दीक है, जिसे हम आसानी से स्वीकार कर सके। अन्य शब्दों में कहा जाए, तो लेखक ने काफी fantastical elements निकाल दिए है। इससे कहानी की तरफ देखने का नजरिया कुछ बदल जाता है।
इस कहानी की सबसे अच्छी बात जो मुझे लगी वह है समय का वर्णन। परदे पर चित्रित होने की वजह से अक्सर हम समय के गुजरने का अंदाजा नहीं लगा पाते। अगर tv पर दिखाई धारावाहिक पर विश्वास रखे, तो ऐसा प्रतीत होता है कि आज राम गुरुकुल से आए, कल गुरु विश्वामित्र के साथ गए, अगले दिन सीताजी का स्वयंवर जीतकर विवाहबद्ध हो गए। जबकि इन सब घटनाओं के बीच कई हफ्ते, कई महीने और साल भी गुजरे है। दो घटनाओं के बीच का समय, उस दौरान का दर्दनाक इंतजार, इसका वर्णन लक्ष्मण की ज़ुबानी बहुत प्रभावशाली तरीके से किया गया है।
रामायण पढ़ते और देखते वक्त कुछ बारीकियां हमारे ध्यान से छूट जाती है। जैसे:
- उत्तर और दक्षिण संस्कृतियों के बीच का अंतर और उससे पल रहा तनाव। यहां इस तनाव और इन भिन्नताओं का उल्लेख लक्ष्मण कई बार करते है। जरा सोचिए, जब उत्तर से दो राजकुमार किष्किंधा यानी दक्षिण की तरफ आए, तो उनको देखकर सबको कितना अचरज हुआ होगा। और जब राम और लक्ष्मण दक्षिण की संस्कृति से परिचित होने लगते है, उन्हें क्या लगा होगा। कई पीढ़ियों से चल रहे इस तनाव को दूर करने की तरफ पहला कदम राम उठाते है, और वह भी अत्यंत प्रेम और समर्पण के साथ। राजनीति के परे जाकर सुग्रीव और विभीषण से मित्रता कर जातिवाद मिटने का प्रयत्न करते है। और चूंकि इन कर्मों में केवल निश्चल प्रेम है, राम सफल भी होते हैं।
- कितने ही युग बीत गए, पर हम शायद कभी भी लक्ष्मण और उर्मिला के प्रेम और त्याग को नहीं समझ पाएंगे। जब उर्मिला लक्ष्मण के कहे बिना उनके भ्रातृप्रेम और कर्तव्य को समझकर उन्हें वनवास जाने की अनुमति देती है, तब दिल भर आता है। इतने बड़े त्याग के बावजूद जब लक्ष्मण लौटने पर सबसे पहले न मिलकर अंत में उर्मिला को देखता है, तब आंख भर आती हैं।
- आज तक मैने रामायण के कितने ही रूपांतर पढ़े और देखे है। पर कोई भी दृष्टांत मुझे आज तक राम के द्वारा सीता के परित्याग की उपयुक्त पुष्टि नहीं दे सका। आप उसे सीता का निर्णय कहकर उस मुद्दे से मुंह फेर सकते हैं। पर मुद्दा तो वही धरा का धरा रह जाता है। कि सीता पर लांछन क्यों लगा? इस उपन्यास में यह स्पष्ट रूप से दिखता है कि भले ही लक्ष्मण राम पर अडिग विश्वास रखते थे, पर सीता के “अग्नि–स्नान” या उसके त्याग से वह राम से बिल्कुल सहमत नही थे।
इस उपन्यास से संबंधित कुछ बातें ऐसी है जो मुझे खटकी, मुख्य रूप से इस कहानी का अंत। कहानी शुरू होती है लक्ष्मण और यमराज के बीच के संवाद से जहां वह यमराज से कहते है कि मुझे स्वर्ग में जाने का हक़ नहीं है, क्योंकि मैंने जीवन में कई जघन्य अपराध किए है। तो कहानी का अंत भी लक्ष्मण और यमराज के संवाद से होना चाहिए। इस कहानी का उपयुक्त निष्कर्ष होना चाहिए, जिससे पाठक को समापन की अनुभूति हो। पर यहां कहानी अधूरी लगती है जैसे लेखक भूल गए हो कि उन्होंने कहानी शुरू कैसे की थी।
जाते–जाते एक विचार व्यक्त करना चाहूंगी जो इस उपन्यास में दर्शाए गए राम और लक्ष्मण के रिश्ते के आधार पर मुझे सूझा है। हम सब में राम और लक्ष्मण बसते है – राम बुद्धि है तो लक्ष्मण हृदय। इन भाइयों के संबंध में जब तालमेल था तब उन्होंने सुग्रीव से मित्रता और रावण और मेघनाद का वध तक कर दिया। पर जब उनका तालमेल बिगड़ा तब अनर्थ हुआ – जब हृदय (लक्ष्मण) बुद्धि (राम) पर हावी हुआ, तब शूर्पणखा की नाक कटी, और जब बुद्धि ने हृदय से मुंह फेरा, तब सीता धरती में समा गई। इसलिए जीवन और संसार में शांति और संतुलन के लिए राम और लक्ष्मण का प्रेम और तालमेल आवश्यक है।
Wow! So well written. Now I have to find this book and read it!!